परशुराम जी ने क्यों क्षत्रियों को खत्म करने की सौगंध लिया था


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परशुराम जी ने क्यों क्षत्रियों को खत्म करने की सौगंध लिया। 

पुराणों के अनुसार उस समय के राजा कर्तावीर्य सहश्रजून एक युद्ध को जीतने के बाद परशुराम जी के पिता जमदग्नि मुनि के आश्रम में रुक गये। जमदग्नि मुनि ने राजा और उनके सैनिको का बहुत ही आदर और सत्कार किये। जब रात्रि का समय हुआ तब भोजन के लिए जमदग्नि मुनि ने अपनी प्रिय कामधेनु गाय माता से भोजन प्रबंध करने के लिए कहा। गाय माता ने क्षण भर में ही सारे सैनिको के लिए भोजन का प्रबंध कर दिया जिसे देख कर राजा कर्तावीर्य सहश्रजून आश्चर्य चकित हो गए और उस गाय को प्राप्त करने के लिए योजना बनाने लगे। और राजा उस गाय को जमदग्नि मुनि के आश्रम से ले जाने में कामयाब हो गए।

जब इस बात की जानकारी परशुराम जी को  हुई तो उन्होंने राजा कार्तवीर्य का वध कर दिया। राजा कर्तावीर्य सहश्रजून का वध हो जाने के बाद उसके पुत्रों ने जमदग्रि मुनि का वध कर दिया। राजा कर्तावीर्य सहश्रजून के पुत्रो के इस कृत्य को देखकर भगवान परशुराम बहुत क्रोधित हुए और परशुराम ने क्रोध में सभी क्षत्रियों को मारने एवं पूरी पृथ्वी को क्षत्रिय राजाओं की तानाशाही से मुक्त करने की शपथ ले ली। परशुराम ने राजा कर्तावीर्य सहश्रजून के सभी पुत्रों का वध कर दिया और जिन-जिन क्षत्रिय राजाओं ने उनका साथ दिया था। परशुराम ने उनका भी वध कर दिया जब पृथ्वी पर बाकि सभी क्षत्रियों ने परशुराम जी की इस शपथ के बारे में सुना तब सभी क्षत्रियों पृथ्वी छोड़ कर भागने लगे।  पृथ्वी की रक्षा के लिए कोई भी क्षत्रिय नहीं बचा। महाभारत के अनुसार परशुराम जी  ने २१ बार इस पृथवी को क्षत्रिय विहीन कर दिए थे।

परशुरामजी के जन्म की मान्यताएँ: 


परशुराम के जन्म एवं जन्मस्थान के पीछे कई मान्यताएँ एवं अनसुलझे सवाल है, सभी की अलग अलग राय एवं अलग अलग विश्वास हैं ।
ऋषि जमादग्नि सप्तऋषि में से एक ऋषि थे। ऋषि जमदग्रि और रेणुका के पांच पुत्र थे, जिनमें से परशुराम सबसे छोटे थे। भगवान परशुराम के तीन बड़े भाई थे, जिनके नाम क्रमश: रुक्मवान, सुषेणवसु और विश्वावसु था। हिंदू पंचांग के अनुसार, वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को भगवान परशुराम का जन्म हुआ था। धर्म ग्रंथों के अनुसार परशुराम भगवान विष्णु के 6वें अवतार के रूप में परशुराम पृथ्वी पर अवतरित हुए।

परशुराम जयंती का महत्व तथा आयोजन 

परशुराम जयंती हिन्दू पंचांग के वैशाख माह की शुक्ल पक्ष तृतीया को मनाई जाती है। इसे “परशुराम द्वादशी” भी कहा जाता है. अक्षय तृतीया को परशुराम जयंती के रूप में भी मनाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस दिन दिये गए पुण्य का प्रभाव कभी खत्म नहीं होता। धर्म ग्रंथों के अनुसार अक्षय तृतीया से त्रेता युग का आरंभ माना जाता है। इस दिन का हिन्दू पंचांग में विशेष महत्व है। भारत में हिन्दू धर्म को मानने वाले अधिक लोग हैं। मध्य कालीन समय के बाद जब से हिन्दू धर्म का पुनुरोद्धार हुआ है, तब से परशुराम जयंती का महत्व और अधिक बढ़ गया है। इस दिन बड़े बड़े जुलूस, शोभायात्रा निकाले जाते हैं. इस शोभायात्रा में भगवान परशुराम को मानने वाले सभी हिन्दू, ब्राह्मण वर्ग के लोग भारी से भारी संख्या में शामिल होते हैं।

भीष्म को नहीं कर सके पराजित


महाभारत के अनुसार, महाराज शांतनु के पुत्र भीष्म ने भगवान परशुराम से ही अस्त्र-शस्त्र की विद्या प्राप्त की थी। एक बार भीष्म काशी में हो रहे स्वयंवर से काशीराज की पुत्रियों अंबा, अंबिका और बालिका को अपने छोटे भाई विचित्रवीर्य के लिए उठा लाए थे। तब अंबा ने भीष्म को बताया कि वह मन ही मन राजा शाल्व को अपना पति मान चुकी है तब भीष्म ने उसे सम्मान सहित राजा शाल्व के यंहा छोड़ दिया, लेकिन हरण कर लिए जाने के बाद शाल्व ने अंबा से विवाह करने के लिए मना कर दिया। तब अंबा भीष्म के गुरु परशुराम के पास पहुंची और उन्हें अपनी व्यथा सुनाई। अंबा की बात सुनकर भगवान परशुराम ने भीष्म को उससे विवाह करने के लिए कहा, लेकिन ब्रह्मचारी होने के कारण भीष्म ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। तब परशुराम और भीष्म में भीषण युद्ध हुआ और अंत में अपने पितरों की बात मानकर भगवान परशुराम ने अपने अस्त्र रख दिए। इस प्रकार इस युद्ध में न किसी की हार हुई न किसी की जीत।



परशुराम जी ने क्यों ब्राह्मणों को दान कर दी संपूर्ण पृथ्वी


परशुराम जी  के द्वारा बार बार पृथवी को क्षत्रिय विहीन होते देखकर महर्षि ऋचिक ने साक्षात प्रकट होकर परशुराम से ऐसे घोर अपराध करने से रोका। तब उन्होंने क्षत्रियों का संहार करना बंद कर दिया और सारी पृथ्वी ब्राह्मणों को दान कर दी और स्वयं महेंद्र पर्वत पर निवास करने लगे। और वंही पर रहकर तपस्या करने लगे तब से ले कर आजतक महेन्द्रगिरी को परशुराम का निवास स्थान माना जाता है. महेन्द्रगिरी, उड़ीसा के गजपति जिले में स्थित है.

पुराणों के अनुसार  संत व्यास, कृपा, अश्वस्थामा के साथ साथ परशुराम को भी कलियुग में ऋषि के रूप में पूजा जाता है. उन्हें आंठवें मानवतारा के रूप में सप्तऋषि के रूप में गिना जाता है.

परशुराम शब्द का अर्थ


परशुराम दो शब्दों से मिलकर बना हुआ है. परशु अर्थात “फरशा” तथा “राम”. इन दो शब्दों को मिलाने पर “फरशा के साथ राम” अर्थ निकलता है. जैसे राम, भगवान विष्णु के अवतार हैं, उसी प्रकार परशुराम भी विष्णु के अवतार हैं. इसलिए परशुराम को भी विष्णुजी तथा रामजी के समान शक्तिशाली माना जाता है.
परशुराम के अनेक नाम हैं. इन्हें रामभद्र, भार्गव, भृगुपति, भृगुवंशी (ऋषि भृगु के वंशज), जमदग्न्य (जमदग्नि के पुत्र) के नाम से भी जाना जाता है.



भगवान परशुराम का शस्त्र। कैसे बने राम से परशुराम?

परशुराम का मुख्य अस्त्र “फरशा” माना जाता है. इसे फारसा, परशु भी कहा जाता है. परशुराम ब्राह्मण कुल में जन्मे तो थे, परंतु उनमे युद्ध आदि में अधिक रुचि थी. पुराणों के अनुसार बचपन में परशुराम जी को उनके माता-पिता राम कहकर बुलाते थे। बाद में जब वह बड़े हुए तो पिता जमदग्रि ने उन्हें हिमालय जाकर भगवान शिव की आराधना करने को कहा।  पिता की आज्ञा मानकर राम ने ऐसा ही किया और वे वंहा जाकर तप करने लगे।  उनके तपस्या से प्रसन्न होकर शिव भगवान ने उन्हें दर्शन दिए और शिवजी ने उन्हें वरदान मांगने को कहा तब परशुराम ने हाथ जोड़कर शिवजी की वंदना करते हुए शिवजी से दिव्य अस्त्र तथा युद्ध में निपुण होने कि कला का वर मांगा शिवजी ने परशुराम को युद्धकला में निपुणता का वरदान दिया।


शिवजी ने परशुराम को वरदान देते हुए कहा कि परशुराम तुम्हारा जन्म धरती के राक्षसों का नाश करने के लिए हुआ है। इसीलिए भगवान शिवजी ने परशुराम को, देवताओं के सभी शत्रु, दैत्य, राक्षस तथा दानवों को मारने में सक्षमता का वरदान दिया। परशुराम ने शिव जी से प्राप्त शस्त्रों से असुरों का विनाश किया। राम के इस पराक्रम को देखकर भगवान शिव ने उन्हें परशु नाम का एक शस्त्र दिया. चूंकि यह अस्त्र राम को बहुत प्रिय था, इसलिए वह राम से परशुराम हो गये.


परशुराम युद्धकला में बहुत ही निपुण थे। परशुराम शिवजी के बड़े उपासक थे। शिवजी की कृपा से उन्हें कई देवताओं के दिव्य अस्त्र-शस्त्र भी प्राप्त हुए थे.  शिवजी से प्राप्त किये हुए शस्त्र में एक अद्भुत धनुष भी था जिसका नाम विजया था।

परशुराम मंदिर 


भारत में कई जगह परशुराम के मंदिर स्थित है. उनमें से कुछ नीचे दिये गए हैं:

1 परशुराम मंदिर, अट्टिराला, जिला कुड्डापह ,आंध्रा प्रदेश.
2 परशुराम मंदिर, सोहनाग, सलेमपुर, उत्तर प्रदेश.
3 अखनूर, जम्मू और कश्मीर.
4 कुंभलगढ़, राजस्थान.
5 महुगढ़, महाराष्ट्र.
6 परशुराम मंदिर, पीतमबरा, कुल्लू, हिमाचल प्रदेश.
7 जनपव हिल, इंदौर मध्य प्रदेश (इसे भी कई लोग परशुराम का जन्म स्थान मानते हैं).


परशुराम कुंड 


लोहित जिला, अरुणाचल प्रदेश – एसी मान्यता है, कि इस कुंड में अपनी माता का वध करने के बाद परशुराम ने यहाँ स्नान कर अपने पाप का प्रायश्चित किया था.


परशुराम ने क्यों अपनी माता का वध कर दिया था ? 

परशुराम वीरता के साक्षात उदाहरण थे। परशुराम अपने माता-पिता के प्रति समर्पण थे जिसके लिए उन्होंने अपनी माता का वध कर दिया था

पुराणों ले अनुसार परशुराम की माता रेणुका एक बार मिट्टी के घड़े को लेकर पानी भरने नदी किनारे गयी हुई थी।  किन्तु नदी किनारे कुछ देवताओं के आने से उन्हें आश्रम लौटने में देरी हो गयी।  ऋषि जमदग्नि ने अपनी शक्ति से रेणुका के देर से आने का कारण जान लिया और वे उन पर अधिक क्रोधित हुए। उन्होने क्रोध में आ कर अपने सभी पुत्रों को बुला कर अपनी माता का वध करने की आज्ञा दी किन्तु ऋषि के चारों पुत्रो ( वासु, विस्वा वासु, बृहुध्यणु, ब्रूत्वकन्व ) ने अपनी माता के प्रति प्रेम भाव व्यक्त करते हुए, अपने पिता की आज्ञा को मानने से इंकार कर दिया।


इससे ऋषि जमदग्नि ने क्रोधवश अपने सभी पुत्रों को पत्थर बनने का श्राप दे दिया। इसके बाद ऋषि जमदग्नि ने परशुराम को अपनी माता का वध करने की आज्ञा दी। परशुराम ने अपने पिता की आज्ञा का पालन करते हुए अपना अस्त्र फरसा उठाया, और अपनी माता रेणुका का वध कर दिया।  इस पर जमदग्नि अपने पुत्र परशुराम से खुश हुए और उन्होने परशुराम से मनचाहा वरदान मांगने को कहा। परशुराम ने बड़ी ही चतुराई से अपनी माता रेणुका तथा अपने भाइयों  को पुनः जीवित करने का वरदान मांग लिया। उनके पिता ने उनके वरदान को पूर्ण करते हुए पत्नी रेणुका तथा चारों पुत्रों को फिर से जीवन प्रदान किया। 



भगवान परशुराम लक्ष्मण संवाद और प्रभु श्री राम मिलन


रामायण काल के अनुसार जब भगवान राम भाई लक्मण और ऋषि विश्वामित्र जी के साथ  माता सीता के स्वयंवर में गये, तो वहां श्री राम ने शिव धनुष जिसका नाम पिनाक था को तोड़ कर माता सीता के साथ विवाह किया। शिव धनुष टूटने की आवाज सुनकर भगवान परशुराम भी स्वयंवर में आ गए। चूंकि यह धनुष भगवान शिव का था, इसलिए परशुराम जी को बहुत क्रोध आ गया और वह भगवान राम व लक्ष्मण से उलझ पड़े।  खासकर, लक्ष्मण से उनका संवाद विवाद रूप में बदल गया। जब संवाद विवाद का रूप धारण कर लिया तब भगवान राम आगे आकर उनको अपना परिचय दिए। परशुराम भगवान राम के पराक्रम की चर्चाएं सुन चुके थे, इसलिए उन्होंने उनकी परीक्षा लेनी चाही।  उन्होंने भगवान राम को दिव्य धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए कहा  श्री राम के ऐसा कर लेने पर उन्हें धनुष पर एक दिव्य बाण चढ़ाकर दिखाने के लिए कहा. राम ने जब यह भी कर दिया. इसके बाद भगवान राम ने परशुराम को दिव्य दृष्टि दी जिससे वह श्री राम के असली स्वरूप को देख पाये।  कहते हैं जब धनुष पर भगवान राम बाण चढ़ा चुके थे, तब उन्होंने उस बाण से परशुराम जी के तप के अहम् को नष्ट किया था।

परशुराम जी ने क्यों तोड़ दिया था श्रीगणेश का एक दांत?


कहा जाता है कि एक बार परशुराम जी भगवान शिव से मिलने के लिए शिव धाम गये थे। जब परशुराम जी कैलाश पहुंचे तो उस समय शंकर जी ध्यान में थे इसलिए श्रीगणेश ने परशुराम जी को रोक दिया।  इस पर परशुराम जी इतना नाराज हो गये कि उन्होंने अपने फरसे से श्रीगणेश पर वार कर दिया।  श्रीगणेश जी ने इस वार को झेलने के लिए अपना दांत आगे कर दिया।  इस प्रकार उनका एक दांत टूट गया तभी से गणेश जी को एकदंत भी कहा जाता है।



भीष्म, द्रोण और कर्ण के गुरु परशुराम जी 


कथाओं के अनुसार महाभारत के प्रसिद्ध पात्रों भीष्म, द्रोण और कर्ण को भगवान परशुराम जी ने ही शस्त्र विद्या सिखाई थी।

क्या भगवान परशुराम जी अमर हैं ?

परशुराम वीरता के साक्षात उदाहरण थे। परशुराम के बारे में यह मान्यता है, कि वे त्रेता युग एवं द्वापर युग से अमर हैं। हिंदू धर्म ग्रंथों में कुछ महापुरुषों को आज भी अमर माना जाता है. इनमें से एक भगवान परशुराम भी हैं।  यह भी कहा जाता है कि वह वर्तमान में भी कहीं तपस्या में लीन हैं।


यदि भगवान् परशुराम जी के बारे में दी गई जानकारी में कोई त्रुटि है तो कृपया हमें बताएं, हम इसे सही कर देंगे ।


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