सम्पूर्ण रामायण की कहानी - श्री राम कथा हिंदी

Sampurna Ramayan Katha in Hindi / संपूर्ण रामायण कथा हिंदी में 


रामायण हिन्दू रघुवंश के राजा राम की गाथा है। इसके रचयिता महर्षि वाल्मीकि जी हैं  रामायण वाल्मीकि द्वारा लिखा गया संस्कृत का एक अनुपम महाकाव्य है।  इसके २४,००० श्लोक और 500 सर्ग हैं। इसे रामायण के सात अध्याय हैं जो काण्ड के नाम से जाने जाते हैं, 

बालकाण्ड  अयोध्याकाण्ड  अरण्यकाण्ड  किष्किन्धाकाण्ड  सुंदरकाण्ड
लंकाकाण्ड (युद्धकाण्ड)  उत्तरकाण्ड


सम्पूर्ण रामायण की कहानी - श्री राम कथा


सनातन धर्म और उस समय के महान लेखक तुलसीदास जी के अनुसार सर्वप्रथम श्री राम की कथा भगवान श्री शंकर ने पार्वती जी को सुनायी थी। जहाँ पर भगवान शंकर पार्वती जी को भगवान श्री राम की कथा सुना रहे थे वहाँ एक कागा (कौवा) का घोंसला था और वह भी उस कथा को सुन रहा था। कथा पूरी होने के पहले ही माता पार्वती को निद्रा आ गई पर कागा ने पूरी कथा सुन ली। कथानुसार उसी पक्षी का पुनर्जन्म काकभुशुण्डि के रूप में हुआ। गरुड़ जी को यह कथा काकभुशुण्डि जी ने सुनाई। भगवान श्री शंकर के मुख से निकली श्रीराम की यह पवित्र रामायण कथा अध्यात्म रामायण के नाम से प्रख्यात है। अध्यात्म रामायण को ही विश्व का सर्वप्रथम रामायण माना जाता है।

हृदय परिवर्तन हो जाने के कारण एक दस्यु से ऋषि बन जाने तथा ज्ञान प्राप्ति के बाद वाल्मीकि ने भगवान श्री राम के इसी वृतान्त को पुनः श्लोकबद्ध किया। महर्षि वाल्मीकि के द्वारा संस्कृत में लिखी भगवान श्री राम की कथा को वाल्मीकि रामायण के नाम से जाना जाता है। वाल्मीकि को आदिकवि कहा जाता है तथा वाल्मीकि रामायण को आदि रामायण के नाम से भी जाना जाता है।
महाज्ञानी सन्त श्री तुलसीदास जी ने भगवान श्रीराम की पवित्र कथा को देशी (अवधी) भाषा में लिपिबद्ध किया। सन्त तुलसीदास जी ने अपने द्वारा लिखित भगवान श्रीराम की कल्याणकारी कथा से परिपूर्ण इस ग्रंथ का नाम रामचरितमानस रखा। सामान्य रूप से रामचरितमानस को तुलसी रामायण के नाम से जाना जाता है।

कालान्तर में भगवान श्रीराम की कथा को अनेक विद्वानों ने अपने अपने बुद्धि, ज्ञान तथा मतानुसार अनेक बार लिखा है। इस तरह से अनेकों रामायणों की रचनाएँ हुई हैं।

रामायण का समय त्रेतायुग का माना जाता है। वाल्मीकि रामायण से प्रेरित होकर सन्त तुलसीदास ने रामचरितमानस जैसे महाकाव्य की रचना की जो कि वाल्मीकि के द्वारा संस्कृत में लिखे गये रामायण का हिंदी संस्करण है। रामचरितमानस में हिंदू आदर्शों का उत्कृष्ट वर्णन है इसीलिये इसे हिंदू धर्म के प्रमुख ग्रंथ होने का श्रेय मिला हुआ है और प्रत्येक हिंदू परिवार में भक्तिभाव के साथ इसका पठन पाठन किया जाता है।

सरयू नदी के किनारे कोशला नमक राज्य था जिसकी राजधानी अयोद्ध्या था रामायण की कथा राजा दशरथ से शुरू होती हैं जो अयोध्या के राजा हैं. राजा दशरथ की 3 रानियाँ थी , कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा.

भगवान राम की बहन शांता / राजा दशरथ की पुत्री शांता का जीवन परिचय -Bhagavaan Raam Ki Bahan Shaanta / Raaja Dasharath Ki Putree Shaanta Ka Jeevan Parichay



राजा दशरथ और कौशल्या की एक बेटी था जिसका नाम शांता था एक दिन रानी कौशल्या की बहन रानी वर्षिणी अपने पति रोमपद के साथ अयोध्या आते हैं। राजा रोमपद अंग देश के राजा थे उनकी कोई संतान नहीं थी  राजा दशरथ और कौशल्या ने अपनी बेटी को रानी वर्षिणी राजा रोमपद को गोद दे देते हैं। (देवी शांता के बारे में वाल्मीकि रामायण में कोई उल्लेख्य नहीं मिलता लेकिन दक्षिण के पुराणों में स्पष्ट रूप से शांता के चरित्र का वर्णन किया गया हैं |)  यह समझ कर कि मेरे पास तीन रानियाँ हैं, उनमें से किसी न किसी से पुत्र की प्राप्ति होगी और इस वंश को आगे बढ़ाएगा.


श्रवण कुमार की स्टोरी हिंदी में / मातृ और पितृभक्त श्रवण कुमार / श्रवण कुमार की कथा - Shravan Kumaar Ki Story Hindi Me / Maatr aur Pitrbhakt Shravan Kumaar / Shravan Kumaar Ki Katha




समय बीतता गया एक दिन राजा दशरथ वन में शिकार करने के लिए गए थे दोपहर तक कोई शिकार नहीं कर पाए थे , राजा ने सोचा चलो सरोवर के पास कुछ देर विश्राम करते हैं कोई न कोई जानवर उस सरोवर में जल पीने आएगा उसी समय उसका शिकार कर लूंगा,उसी वन में से श्रवण कुमार अपने माता पिता जो कि दोने अंधे थे उनको तीर्थ यात्रा के लिए लेकर जा रहे थे, श्रवण के माता पिता ने बोले पुत्र तुम बहुत थक चुके होगे और मुझे प्यास लगी हैं कही जल की ब्यवस्था हो तो मुझे जल पिला दो और तुम भी थोड़ा विश्राम कर लो पिता जी की बात सुनकर श्रवण कुमार जल के लिए कमंडल लेकर निकल गए और उनको एक सरोवर दिखा

जब श्रवण कुमार सरोवर से जल भरने लगे तो राजा को आभाष हुआ कि शायद कोई जंगली जानवर सरोवर में पानी पी रहा हैं. और उसी समय उसी दिशा में शब्द भेदी बाण चला दिए वह बाण जाकर सीधे श्रवण कुमार को लग गया और उनके मुख से हाय पिता जी हाय माता जी का स्वर निकला यह स्वर जैसे ही राजा को सुनाई दिया वो उसी समय उसी दिशा की तरफ तुरंत भागे वह जाकर देखते हैं की उनके द्वारा चलाया गया शब्द भेदी बाण से एक मनुष्य बहुत बुरी तरह से घायल हो गया हैं और दर्द से तड़प रहा हैं


राजा यह देख कर बहुत ही दुःख हुआ और उस कुमार से उसका परिचय पूछते हैं उस कुमार ने बताया की उसका नाम श्रावण कुमार हैं और वह अपने माता पिता को तीर्थ यात्रा के लिए लेकर जा रहा हैं  वे दोनों इसी वन में उस छोर पर हैं कृपया करके आप उनको जल पीला देना इतना कहकर श्रावण कुमार का प्राण निकल गया।  राजा जब जल लेकर उसके माता पिता के पास जाते हैं और उनको बताते हैं की भूल से उनके पुत्र की हत्या उनके द्वारा हो गयी। श्रवण कुमार के माता पिता को बहुत दुःख होता हैं और उनके प्राण निकल जाते हैं लेकिन प्राण निकलने से पहले  वो राजा दशरथ को श्राप दे देते हैं की एक दिन तुम भी अपने पुत्र वियोग में इसी तरह तड़पोगे .


समय अपने गति से गुजरता गया और राजा दशरथ अपने बृद्धा अवस्था में प्रवेश करने लगे अब वो बहुत चिंतित होने लगे की इतने बड़े राज्य का क्या होगा क्योंकि अभी तक उनके तीनो रानियों से कोई संतान नहीं था
राजा दशरथ ने पुत्र पाने की इच्छा अपने कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ से बताई तब महर्षि वशिष्ठ ने राजा दसरथ को ऋषि श्रृंगी (शांता के पति ) से पुत्र प्राप्ति का यज्ञ करवाने के लिए बोले .


ऋषि श्रृंगी के निर्देशानुसार राजा दशरथ ने यज्ञ करवाया जब यज्ञ में पूर्णाहुति दी जा रही थी उस समय अग्नि कुण्ड से अग्नि देव मनुष्य रूप में प्रकट हुए तथा अग्नि देव ने राजा दशरथ को खीर से भरा कटोरा प्रदान किया। तत्पश्चात ऋषि श्रृंगी ने बताया हे राजन, अग्नि देव द्वारा प्रदान किये गए खीर को अपनी सभी रानियों को प्रसाद रूप में दीजियेगा।


राजा दशरथ ने वह खीर अपनी तीनो रानियों कौशल्या, कैकेयी और  सुमित्रा में बांट दी। प्रसाद ग्रहण के पश्चात नव महीने बाद चैत्र माह में शुक्ल पक्ष की नवमी को राजा दशरथ के घर में माता कौशल्या के गर्भ से राम जी का जन्म हुआ तथा कैकेयी के गर्भ से भरत एवं सुमित्रा के गर्भ से लक्ष्मण तथा शत्रुधन का जन्म हुआ।

राम और उनके भाइयो की शिक्षा ऋषि वशिष्ठ के आश्रम में पूरी हुई। जब राम 16 वर्ष के हुए तब ऋषि विश्वामित्र, रजा दशरथ के पास गए और यज्ञ में विघ्न डालने वाले राक्षसों का अंत करने के लिए राम और लक्ष्मण की मदद मांगी। राजा दशरथ पहले तो पुत्र मोह में राम और लक्ष्मण देने से मना कर दिया लेकिन ऋषि वशिष्ठ के समझाने के बाद राम और लक्ष्मण को राक्षसों का अंत करने के लिए ऋषि विश्वामित्र के साथ भेज दिए।  दोनों भाइयों ने कई राक्षसों का अंत किया जिसके फलस्वरूप उन्हें ऋषि विश्वामित्र ने कई दिव्य अस्त्र प्रदान किये।

मिथिला के राजा जनक द्वारा एक स्वयंवर संयोजित किया गया था। उस स्वयम्बर में ऋषि विश्वामित्र को भी आमंत्रित किया गया था। विश्वामित्र दोनों राजकुमार के साथ मिथिला के लिए प्रस्थान किये रास्ते में राम अहिल्या का उद्धार करके मिथिला राज्य पहुंचे। यह स्वयंवर माता सीता के लिए अच्छे वर की खोज के लिए किया गया था। इस स्वयंवर में शर्त यह रखी की जो योध्या शिव धनुष को तोड़ेगा उसके साथ सीता को विवाह होगा

उस स्वयंवर में कई राज्यों के राजकुमारों और राजाओं को आमंत्रित किया गया था।  सभी राजाओं ने बहुत कोशिश किया परन्तु वे धनुष को हिला भी ना सके।

अंत में श्री राम ने एक ही हाथ से धनुष उठा लिया और जैस ही उसके तार को खीचने की कोशिश की वह धनुष दो टुकड़ों में टूट गया। इस प्रकार श्री राम और सीता का विवाह हुआ। इस प्रकार श्री राम का विवाह सीता से, लक्ष्मण का विवाह उर्मिला से, भरत का विवाह मांडवी से और शत्रुधन का विवाह श्रुतकीर्ति से हो गया।

जब चारो राजकुमार का विवाह हो गया था तब राजा दशरथ अपना राज पाठ अपने ज्येष्ठ पुत्र राम को सोपना चाहते थे।  जब राम का राज तिलक करने की तैयारी हो रही थी तभी उसकी सौतेली माँ कैकेयी, अपने पुत्र भरत को अयोध्या का राजा बनाने का षड्यंत्र रच रही थी। यह षड्यंत्र बूढी मंथरा के द्वारा किया गया था। रानी कैकेयी ने एक बार राजा दशरथ की जीवन की रक्षा की थी तब राजा दशरथ ने उन्हें दो वर मांगने के लिए कहा था पर कैकेयी ने कहा समय आने पर मैं मांग लूंगी।

उसी वचन के बल पर कैकेयी ने राजा दशरथ से अपने  पुत्र भरत के लिए अयोध्या का सिंघासन और राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास माँगा। जब यह बात श्री राम को पता चला तो एक आज्ञाकारी पुत्र राम अपने पिता के वचन को आशीर्वाद माना और वन के लिए चल दिए। अपने पत्नि धर्म को निभाते हुए माता सीता भी उनके साथ वन गमन को तैयार थी और छोटा भाई लक्ष्मण भी भ्रातृत्व प्रेम के कारण अपने बड़े भैया राम के साथ वन जाने के लिए तैयार हो गये। माता सीता और प्रिय भाई लक्ष्मण के साथ चौदह वर्ष का वनवास व्यतीत करने के लिए राज्य छोड़ कर चले गए।


इस दुख को राजा दशरथ बर्दास्त नहीं पाए और पुत्र विरोग उनकी मृत्यु हो गयी। कैकेयी के पुत्र भरत को जब यह बात पता चली तो उसने भी राज गद्दी पर बैठने से मना कर दिए और अपने बड़े भाई को मनाने वन की तरफ चल दिए

जब भगवान राम, माता सीता और छोटे भाई लक्ष्मणजी वनवास के लिए राज महल  निकले तो वे वन में एक स्थान से दूसरे स्थान पर भटकते हुए ऋषि – मुनियों की सेवा करते हुए और उनका आशीर्वाद लिए और कई असुरों का संहार किया।  वे वन के चित्रकूट में एक कुटिया बना कर रहने लगे। भरत राम को वन में मिले और पिता की मृत्यु का समाचार बताया जिसे सुनकर राम को बहुत दुःख हुआ।

भरत ने राम से बहुत आग्रह किये की वे राज महल वापस चले लेकिन राम ने यह कहके मना कर दिया की एक पुत्र होने के नाते मुझे अपने पिता के वचनो का पालन करना चाहिए। और वह भरत को अपना खड़ाऊ देकर वापस अयोध्या भेज दिए। भगवान राम, माता सीता और लक्ष्मणजी सहित वन में घूमते – घूमते पंचवटी नामक स्थान पर पहुँचे। यह  स्थान उन्हें बहुत ही रमणीय व सूंदर लगा और उन्होंने वनवास के अंतिम वर्षों में यही रहने का निश्चय किया। उन्होंने पंचवटी में गोदावरी नदी के तट पर अपने लिए एक छोटी सी कुटिया बनाई और वही समय व्यतीत करने लगे.


वनवास का समय बहुत ही शांति पूर्ण तरीके से ब्यतीत हो रहा था। एक बार की बात है लंका के असुर राजा रावन की बहन सूर्पनखा वन भ्रमण को निकली और घूमते – घूमते गोदावरी नदी के पास पंचवटी पहुँची और वहाँ उन्होंने भगवान राम को देखा और वह उनपर मोहित हो गयी। उसने राम को पाने की कोशिश की पर राम ने उत्तर दिया मैं तो विवाहित हूँ मेरे भाई लक्ष्मण से पूछ लो । तब सूर्पनखा लक्ष्मण के पास जा कर विवाह का प्रस्ताव रखने लगी पर लक्ष्मण ने साफ़ इनकार कर दिया। तब सूर्पनखा ने क्रोधित हो कर माता सीता पर आक्रमण कर दिया। यह देख कर लक्ष्मण ने अपने धनुष से सूर्पनखा का नाक काट दिया। कटी हुई नाक के साथ रोते हुए जब सूर्पनखा अपने भाई खर दूषण के पास पहुंची। और अपने राक्षस भाइयों से बदला लेने के लिए कहा। खर और दूषण ने राम और लक्ष्मण पर हमला किया, परन्तु दोनों ही राम और लक्ष्मण द्वारा मारे गये।


खर और दूषण की मृत्यु के बाद शूर्पनखा राक्षसों के राजा और अपने बड़े भाई लंकापति रावण के पास गयी और चीखती हुई अपनी कथा सुनाई। साथ ही साथ सीता की सुन्दरता का भी बखान किया और रावण को अपने अपमान का बदला लेने के लिए युद्ध करने के लिए उकसाया।


रावण सीता के रूप का विस्तृत वर्णन सुनकर रावण के मन में कुटिल विचार आया और सीता हरण की योजना बनायीं। अपनी महत्वाकांक्षा को पूर्ण रखने के लिए रावण अपने ‘पुष्पक विमान’ में बैठ कर राक्षस मारीच के पास गया।  रावण ने अपनी कुटिल बुद्धि से मारीच से कहा, कि वह एक स्वर्ण मृग का रूप धारण करके सीता को लालायित करें। मारीच ने सुनहरे हिरण का रूप धारण किया और माता सीता को लालायित करने के प्रयास करने लगा। माता सीता की दृष्टी जैसे ही उस स्वर्ण मृग पर पड़ी, उन्होंने भगवान राम से उस सुनहरे हिरण को प्राप्त करने की इच्छा जताई।


भगवान राम उस स्वर्ण मृग को पकड़ने के लिए अपने धनुष – बाण के साथ वन की ओर चले गये प्रभु श्री राम उस सुनहरे हिरण का पीछा करते हुए घने जंगल में जा पहुँचे थे और जब उन्हें लगा कि अब हिरण को पकड़ा जा सकता हैं, तो उन्होंने अपने धनुष से हिरण को निशाना बनाकर तीर छोड़ा, जैसे ही तीर मारीच को लगा, वह अपने वास्तविक रूप में आ गया और रावण की योजनानुसार भगवान राम की आवाज में दर्द से चीखने लगा लक्ष्मण, बचाओ लक्ष्मण।

सीता इस कराहती हुई आवाज को सुनकर लक्ष्मणजी से कहा कि तुम्हारे भैया किसी मुसीबत में फँस गये हैं और तुम्हें पुकार रहे हैं अतः तुम जाओ और उनकी सहायता करो, उनकी रक्षा करो। लक्ष्मणजी ने अपने भैया राम के आदेश की अवहेलना करनी पड़ी और वे प्रभु श्री राम की खोज करने के लिए निकल पड़े। परन्तु निकलने के पहले  उन्होंने कुटिया के चारों ओर एक रेखा खींच दी, जिसके भीतर कोई नहीं आ सकता था. फिर उन्होंने माता सीता से निवेदन किया कि भाभी यह खिंची गयी रेखा के अंदर ही आप रहना जब तक आप इसके भीतर हैं, आपको कोई हानि नहीं पहुंचा सकता।  माता सीता इस बात के लिए सहमत हो गयी।


रावण, जो कि इसी अवसर की प्रतीक्षा कर रहा था, कि राम और लक्ष्मणजी कुटिया से दूर। योजना के अनुसार रावण एक साधू के रूप में कुटिया पहुंचा और भिक्षाम देहि का स्वर लगाने लगा। जैसे ही रावण ने कुटिया के पास लक्ष्मण रेखा पर अपना पैर रखा उसका पैर जलने लगा यह देखकर रावण ने माता सीता को बाहर आकर भोजन देने के लिए कहा। जैसे ही माता सीता लक्ष्मण रेखा से बाहर निकली रावण ने पुष्पक विमान में सीता माता का हरण कर लिया।

जब राम और लक्ष्मण को यह पता चला की उनके साथ छल हुआ है तो वो कुटिया की और भागे पर वहां उन्हें माता सीता नहीं मिली । जब रावण सीता को पुष्पक विमान में लेकर जा रहा था तब बूढ़े जटायु पक्षी ने रावण से सीता माता को छुड़ाने के लिए युद्ध किया परन्तु रावण ने जटायु का पंख काट डाला। इस कारण वह धरती पर गिर पड़ा और कराहने लगा।  जब राम और लक्ष्मण सीता को ढूँढते हुए जा रहे थे तो रास्ते में जटायु का शारीर पड़ा था और वो राम-राम विलाप कर रहा था। जब राम और लक्ष्मण ने उनसे सीता के विषय में पुछा तो जटायु ने उन्हें बताया की रावण माता सीता को उठा ले गया है और यह बताते बताते उसकी मृत्यु हो गयी।

माता सीता की खोज करते करते वो दोनों भाई माता सवरी के आश्रम में पहुंचते हैं।  वंहा से वे लोग ऋषि मुख पर्वत पर पहुंचते हैं जहाँ सुग्रीव और उनके साथी रहते थे। वंहा उनकी मुलाकात उनके प्रिय भक्त हनुमान से होती हैं। हनुमान भगवन राम और  सुग्रीव से उनकी मित्रता करवा देते हैं।  सुग्रीव के भाई बाली ने उससे उसका राज्य भी छीन लिया और उसकी पत्नी को भी बंदी बना कर रखा था।

जब रावण पुष्पक विमान में सीता माता को ले जा रहा था तब माता सीता ने निशानी के लिए अपने अलंकर उस पर्वत पर फेक देती हैं। वो सुग्रीव की सेना के कुछ वानरों को मिला था। जब उन्होंने श्री राम को वो अलंकर दिखाये तो राम और लक्ष्मण के आँखों में आंसू आ गये।
श्री राम ने बाली का वध करके सुग्रीव को किसकिन्धा का राजा  बना दिया। सुग्रीव ने भी मित्रता निभाते हुए राम को वचन दिया की वो और उनकी वानर सेना भी सीता माता को खोजने व छुडाने के लिए पूरी जी जान लगा देंगे।

उसके बाद हनुमान, सुग्रीव, जामवंत, ने मिल कर सुग्रीव की वानर सेना का नेतृत्व किया और चारों दिशाओं में अपनी सेना को भेजा दिया माता सीता का पता लगाने के लिए। दक्षिण दिशा की ओर हनुमान एक सेना लेकर गए जिसका नेतृत्व अंगद कर रहे थे। जब वे दक्षिण के समुंद तट पर पहुंचे। वहीँ कोने में एक बड़ा पक्षी बैठा था जिसका नाम सम्पाती था । सम्पति वानरों को देखकर बहुत खुश हो गया और भगवान का शुक्रिया करने लगा इतना सारा भोजन देने के लिए। जब सभी वानरों को पता चला की वह उन्हें खाने की कोशिश करने वाला था तो सभी उसकी घोर आलोचना करने लगे और महान पक्षी जटायु का नाम लेकर उसकी वीरता की कहानी सुनाने लगे।

जैसे ही जटायु की मृत्यु की बात उसे पता चला वह ज़ोर-ज़ोर से विलाप करने लगा। उसने वानर सेना को बताया की वो जटायु का भाई है  उसने यह भी बताया की सूर्य की तेज़ किरणों से जटायु की रक्षा करते समय उसके सभी पंख भी जल गए और वह उस पर्वत पर गिर गया तभी से यंहा पर रह रहा हैं ।

सम्पाती ने वानरों से बताया कि मैं यंहा से देख सकता हूँ की माता सीता असुर राजा रावण की लंका की अशोक वाटिका में एक बृक्ष के निचे उदास बैठी हैं। दक्षिणी समुद्र के दूसरी ओर उसका राज्य है।
जामवंत जी ने  हनुमान को उनकी  सभी शक्तियों को ध्यान दिलाते हुए कहा की हे हनुमान आप ही इस विशाल समुद्र को लाँघ सकते हो।  यह सुन कर हनुमान का मन हर्षित हो गया और वे समुंद्र तट किनारे स्तिथ सभी लोगों से बोले आप सभी कंद मूल खाकर यही मेरा इंतज़ार करें जब तक मैं सीता माता को पता लगा कर वापस ना लौट आऊं। ऐसा कहकर वे समुद्र के ऊपर से उड़ते हुए लंका की ओर आकाश मार्ग से  चले दिए ।

आकाश मार्ग से जाते समय उन्हें एक मेनका पर्वत मिला और वह उनसे आग्रह किया की वह कुछ समय विश्राम कर ले लेकिन हनुमान जी  ने उत्तर दिया जब तक श्री राम जी का कार्य पूर्ण ना कर लूं मेरे जीवन में विश्राम की कोई जगह नहीं है और वे उड़ते  हुए आगे चले गए।

देवताओं ने हनुमान की परीक्षा लेने के लिए सुरसा नाम की एक राक्षशी को भेजा। सुरसा ने हनुमान को खाने की कोशिश की पर हनुमान को खा ना सकी। हनुमान उसके मुख में जा कर निकल आये और आगे पुनः श्री राम काम के लिए आगे चल दिए।

समुंद्र में एक छाया को पकड़ कर खा लेने वाली राक्षसी रहती थी। उसने भी हनुमान को उनकी छाया के द्वारा पकड़ लिया पर हनुमान ने उसे भी मार दिया।

समुद्र लाँघ कर वे लंका पहुंच गए हनुमान एक पर्वत के ऊपर चढ़ कर वहां से लंका की और देखा। लंका का राज्य उन्हें दिखा जिसके सामने एक बड़ा द्वार था और पूरा लंका सोने का बना हुआ था।

हनुमान ने एक लघु रूप धारण किया और वो द्वार से अन्दर जाने लगे। उसी द्वार पर लंकिनी नामक की एक राक्षसी रहती थी।  उसने हनुमान का रास्ता रोकना चाहा लेकिन हनुमान की एक मुस्टिका से ही उसको अचेत कर दिया।

हनुमान ने लंका में प्रवेश कर माता सीता की खोज करने लगे थोड़ी देर बाद बाद उन्हें एक ऐसा महल दिखाई दिया जिसमें एक छोटा सा मंदिर था एक तुलसी का पौधा भी। हनुमान जी को यह देखकर बड़े अचंभे में पड गए और उनके मन में यह जानने की इच्छा हुई की आखिर ऐसा कौन है जो इन असुरों के बिच श्री राम भक्त है।

यह जानने के लिए हनुमान ने एक ब्राह्मण का रूप धारण किया और द्वार पर जाकर आवाज लगाई । विभीषण अपने महल से बाहर निकले और जब उन्होंने एक ब्राह्मण को द्वार पर  देखा तो वो बोले – हे महापुरुष आपको देख कर मेरे मन में अत्यंत सुख मिल रहा है, कौन आप ? ब्राह्मण  ने पुछा आप कौन हैं?  विभीषण ने उत्तर दिया मैं रावण का भाई विभीषण हूँ।

यह सुन कर हनुमान अपने असली रूप में आ गए और श्री रामचन्द्र जी के विषय में सभी बातें उन्हें बताया। विभीषण ने निवेदन किया- हे पवनपुत्र मुझे एक बार श्री राम से मिलवा दो। हनुमान ने उत्तर दिया – मैं श्री राम जी से ज़रूर मिलवा दूंगा परन्तु पहले मुझे यह बताये की मैं जानकी माता से कैसे मिल सकता हूँ?

विभीषण ने हनुमान को बताया की रावण ने सीता माता को अशोक वाटिका में कैद करके रखा है। यह जानने के बाद हनुमान जी ने एक छोटा सा रूप धारण किया और वह अशोक वाटिका पहुंचे। कुछ देर बाद हनुमान ने सीता जी के सामने श्री राम की अंगूठी डाल दी। श्री राम नामसे अंकित अंगूठी देख कर सीता माता के आँखों से ख़ुशी के अंशु निकल पड़े। परन्तु सीता माता को संदेह हुआ की कहीं यह रावण की कोई चाल तो नहीं।तब सीता माता ने पुकारा की कौन है जो यह अंगूठी ले कर आया है। उसके बाद हनुमान जी प्रकट हुए पर हनुमान जी को देखकर भी सीता माता को विस्वास नहीं हुआ।हनुमान जी ने मधुर वचनों के साथ रामचन्द्र के गुणों का वर्णन किया और बताया की वो श्री राम जी के दूत हैं। सीता ने व्याकुलता से श्री राम जी का हाल चाल पुछा। हनुमान जी ने उत्तर दिया – हे माते श्री राम जी ठीक हैं और वे आपको बहुत याद करते हैं। वे बहुत जल्द ही आपको लेने आयेंगे और में शीघ्र ही आपका सन्देश श्री राम जी के पास पहुंचा दूंगा।

हनुमान जी को बहुत भूख लग रहा था माता सीता की आज्ञा लेकर अशोक वाटिका में लगे पेड़ों के फलों को खाने लगे। फलों को खाने के साथ-साथ हनुमान उन पेड़ों को तोड़ने लगे तभी रावण के सैनिकों ने हनुमान पर प्रहार किया पर हनुमान ने सबको मार डाला। जब रावण को इस बात का उनके सैनिको द्वारा पता चला की कोई बन्दर अशोक वाटिका में उत्पात मचा रहा है तो उसने अपने पुत्र अक्षय कुमार को भेजा हनुमान का वध करने के लिए। पर हनुमान जी ने उसका वध कर डाला

उसके बाद रावण ने अपने  जेष्ट  पुत्र मेघनाद को भेजा। हनुमान के साथ मेघनाद का  युद्ध हुआ परकुछ ना कर पाने के बाद मेघनाद ने ब्रह्मास्त्र चला दिया। ब्रह्मास्त्र का सम्मान करते हुए हनुमान स्वयं बंधग बन गए।
हनुमान को रावण की सभा में लाया गया। वंहा  हनुमान की पूंछ पर तेल वाला कपडा बंध कर आग लगा दिया गया। जैसे ही पूंछ में आग लगी हनुमान जी बंधन मुक्त हो कर एक छत से दुसरे में कूदते गए और पूरी सोने की लंका में आग लगा के समुद्र की और चले गए और वहां अपनी पूंछ पर लगी आग को बुझाया

और सीता माता से मिले और श्री राम जी को दिखने के लिए चिन्ह माँगा तो माता सीता ने हनुमान को अपने कंगन उतार कर दे दिए।

वहां से सीधे हनुमान जी श्री राम के पास लौटे और वहां उन्होंने श्री राम को सीता माता के विषय में बताया और उनके कंगन भी दिखाए। सीता माता के निशानी को देख कर श्री राम भावुक  हो गए।
श्री राम और वानर सेना की चिंता का विषय था कैसे पूरी सेना समुद्र के दुसरे और जा सकेंगे। श्री राम जी ने समुद्र से निवेदन किया की वे रास्ता दें ताकि उनकी सेना समुद्र पार कर सके। समुद्र देव ने उत्तर दिया – हे  राम आपकी सेना में दो वानर हैं नल और नील उनके स्पर्श करके किसी भी बड़े से बड़े पत्थर को पानी में डाल देंगे तो वह डूबेगा नहीं ।

समुद्र देव की सलाह के अनुसार नल और नील ने पत्थर पर श्री राम के नाम लिख कर समुद्र में फैंक के ऊपर एक सेतु का निर्माण  कर दिया और उसी सेतु के ऊपर श्री राम की सेना ने विशाल समुद्र को पार कर के लंका पहुंच गए

श्री राम ने अपनी सेना के साथ समुद्र किनारे डेरा डाला। जब इस बात का पता रावण को हुई तो वह उनको मरने के लिए योजना बनानी शरू कर दिया

रावण के भाई विभीषण ने  रावण को बहुत समझाया और सीता माता को समान्पुर्वक श्री राम को सौंप देने के लिए कहा परन्तु यह सुन कर रावण क्रोधित हो गया और अपने ही भाई को लात मार दिया और उसे  राज्य छोड़ने का आदेश दिया विभीषण श्री राम के पास आ गए। राम ने भी ख़ुशी के साथ उन्हें स्वीकार किया और अपने डेरे में रहने की जगह दी। आखरी बार श्री राम ने बाली पुत्र अंगद कुमार को रावण के पास एक संधि प्रस्ताव लेकर भेजा पर रावण तब भी नहीं माना।

श्री राम और रावण की सेना के बिच भीषण युद्ध हुआ। इस युद्ध में लक्ष्मण पर मेघनाद ने बरछी  से प्रहार किया था जिससे लक्ष्मण मूर्छित  हैं तब  हनुमान जी वैध के परामर्श अनुसार संजीवनी बूटी लेने के लिए हिमालय पर्वत गए। परन्तु वे उस पौधे को पहचान ना सके इसलिए वे पूरा हिमालय पर्वत ही उठा लाये थे। संजीवनी बूटी  बाद लक्ष्मण को पुनः जीवन दान मिला उसके बाद उन्होंने मेघनाद का वध कर दिया भगवन राम ने रावण के भाई कुंभकरण जैसे महारथी असुर को भी ने अपने बांण से मार डाला।

अंत में श्री राम रावण का वध करके सीता माता को छुड़ा लाते हैं और विभीषण को लंका का राजा नियुक्त कर देते हैं। श्री राम, सीता और भाई लक्ष्मण के साथ अपने राज्य 14 वर्ष के वनवास से लौटते हैं।

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