दानवीर कर्ण के जन्म की कथा - महाभारत कथा

दानवीर कर्ण जन्म, विवाह, श्राप और मृत्यु
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कुंती पुत्र कर्ण का जन्म कैसे हुआ ?


महाभारत के दान वीर कर्ण का इतिहास बड़ा ही रोचक हैं। कर्ण एक महान योद्धा और ज्ञानी पुरुष थे। कर्ण केवल शूरवीर या दानी ही नहीं थे अपितु कृतज्ञता, मित्रता, सौहार्द, त्याग और तपस्या का प्रतिमान भी थे। वे ज्ञानी, दूरदर्शी, पुरुषार्थी और नीतिज्ञ भी थे, और धर्म को समझने वाले एक महान योद्ध्या थे। कर्ण का व्यक्तित्व बहुत ही रहस्यमय है। 


महाभारत में जितना मुख्य किरदार अर्जुन और दुर्योधन का था, उतना ही कर्ण का भी था। कर्ण को श्राप के चलते अपने पुरे जीवन काल में कष्ट उठाने पड़े और उन्हें वह हक और सम्मान नहीं मिला जिसके वो असली हकदार थे। कर्ण एक क्षत्रीय होते हुए भी पुरे जीवन सूद्र के रूप में बिताया और युधिस्थर, दुर्योधन से बड़े होने के बावजूद कर्ण को उनके सामने झुकना पड़ा।



बहुत कम लोग ही कर्ण के बारे में बात करते है और कम लोग ही इनके जीवन के बारे में जानते है।  आज हम आपको कर्ण का चरित्र चित्रण और कर्ण के जीवन से जुडी कुछ रोचक बातें आपके साथ शेयर करेंगे।

सूर्यपुत्र कर्ण का जन्म - कर्ण का जन्म कब हुआ था?


कर्ण कुंती के सबसे बड़े पुत्र थे, और कुंती के अन्य 5 पुत्र उनके भाई थे। पुराणों के अनुसार महर्षि दुर्वासा ऋषि एक बार कुन्तेय नामक राज्य में  पधारे। कुन्तेय राज्य की राजकुमारी का नाम कुंती था। राजकुमारी कुंती बहुत ही शांत, सरल और विनम्र स्वभाव की थी। अपने राज्य में महर्षि दुर्वासा के आगमन पर राजकुमारी कुंती ने उनके स्वागत, सत्कार और सेवा बड़े लगन के साथ किया। महर्षि दुर्वासा ने राजकुमारी कुंती की सेवा भावना से बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने राजकुमारी कुंती को वरदान स्वरुप एक मंत्र दिया और कहा कि वे जिस भी देवता का नाम लेकर इस मंत्र का उच्चारण करेंगी, उन्हें उसी के सामान पुत्र की प्राप्ति होगी और उस पुत्र में उस देवता के वे सारे गुण विद्यमान होंगे।  इसके बाद महर्षि दुर्वासा कुंती राज्य से प्रस्थान कर गये।


कुछ समय पश्चात् एक दिन कुंती महर्षि दुर्वासा द्वारा प्राप्त मंत्र का परिक्षण करना चाहा। तब उन्होंने एकांत में बैठकर उस मंत्र का जाप करते हुए सूर्यदेव का स्मरण किया। उसी क्षण सूर्यदेव प्रकट हो गए। और उसी क्षण एक बालक राजकुमारी कुंती की गोद में प्रकट हो गया और जैसा कि ऋषिवर ने वरदान दिया था कि इस प्रकार जन्म लेने वाले पुत्र में उस देवता के गुण होंगे, यह बालक भी भगवान सूर्य के समान तेज लेकर उत्पन्न हुआ था। ( इसी कारन कर्ण एक सूर्य पुत्र कहलाये, इस प्रकार बालक कर्ण का जन्म हुआ। और इस प्रकार कर्ण की माता कुंती और पिता भगवान सूर्य थे।)  यह सब देख कुंती हैरान-परेशान हो गयी की अब वो क्या करें? क्योंकि कुंती उस समय कुवारी थी।



कर्ण को क्यों त्याग देने का निर्णय लिया कुंती ने  ?  


कुंती बिना विवाह के पुत्र होने के कारण वे राज्य में अपनी, अपने पिता की, अपने सम्पूर्ण परिवार और राज्य की प्रतिष्ठा और सम्मान के प्रति चिंतित हो गयी और इस स्थिति में राजकुमारी कुंती ने समाज लोक लाज के कारण पुत्र का त्याग करने का निर्णय लिया जो की बहुत ही कठिन था। परन्तु वे अपने पुत्र प्रेम के कारण उसकी सुरक्षा के लिए चिंतित थी। इसी कारण द्रोपदी ने  भगवान सूर्य से अपने पुत्र की रक्षा करने की प्रार्थना की, तब भगवान सूर्य ने अपने पुत्र की सुरक्षा के लिए उसके शरीर पर अभेद्य कवच और कानों में कुंडल  प्रदान किये, जो इस बालक के शरीर का ही हिस्सा थे। इन्ही कुण्डलो के कारण इस बालक का नाम कर्ण रखा गया ।



कवच-कुंडल धारण किए हुए कुंती ने अपने दिल पर पत्थर रख करके अपने पुत्र को एक टोकरी में डाल कर गंगा जी में प्रवाहित कर दिया। वह बालक गंगा में बहता हुआ जा रहा था की एक किनारे पर धृतराष्ट्र का सारथी अधिरथ अपने अश्व को जल पिला रहा था। उसकी दृष्टि उस टोकरी में रखे बालक पर पड़ी। अधिरथ ने उस बालक को उठा लिया और अपने घर ले गया। अधिरथ निःसंतान था। अधिरथ की पत्नी का नाम राधा था। दोनों  ने उस बालक को अपने पुत्र के समान पालन-पोषण किया। अधिरथ और उसकी पत्नी राधा एक सूत (नीची) जाति के थे ,इसलिए कर्ण को 'सूतपुत्र भी कहा जाता था तथा राधा ने उसे पाला था इसलिए उसे 'राधेय के नाम से भी जाना जाता था।


दान वीर और सूर्यपुत्र कर्ण के गुरु कौन थे ?


जब कर्ण बड़े हुए तो वे एक अच्छा धनुर्धन बनाना चाहते थे, और धनुर विद्या का ज्ञान पाना चाहते थे। इसके लिए कर्ण अपने पिता के साथ गुरु द्रोणाचार्य के पास गए ,लेकिन गुरु द्रोणाचार्य सिर्फ क्षत्रीय राजकुमारों को ही शिक्षा देने के लिए वचन वद्ध थे। उन्होंने कर्ण को धनुर विद्या देने से मना कर दिया क्योंकि कर्ण एक सूद्र पुत्र थे। जिसके बाद कर्ण ने निश्चय किया कि वह एक अच्छा धनुर्धन बन के रहेगा। इसके लिए वो गुरु द्रोणाचार्य के गुरु और शिव भक्त परशुरामजी के पास गए।


परशुराम जी भी सिर्फ ब्राह्मण को ही शिक्षा देते थे।परशुराम का प्रण था कि मैं सिर्फ ब्राह्मणों को ही अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा दूंगा। तब कर्ण ने झूठ का सहारा लिया और उसने परशुराम के आश्रम में शरण ली और उनसे झूठ बोला कि मैं एक ब्राह्मण पुत्र  हूं। परशुराम ने उसे  ब्राह्मण पुत्र समझकर धनुर विद्या का शिक्षा देना प्रारम्भ कर दिए।  परशुराम ने कर्ण को कई अन्य अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा दी और कर्ण पूर्ण रूप से अस्त्र-शस्त्र विद्या में पारंगत हो गए। परशुराम जी ने कर्ण को ब्रह्मास्त्र के प्रयोग की शिक्षा भी दे दी।


जब कर्ण की शिक्षा समाप्त होने वाली थी तब एक दिन आश्रम में परशुराम जी कर्ण की गोद में सो रहे थे। तभी एक जहरीला बिच्छु आकर कर्ण के पैर में डंक मारने लगा, लेकिन कर्ण हिला नहीं क्योंकि उसे लगा अगर वो हिलेगा तो शायद उसके गुरु की निद्रा में विघ्न होगा। जब परशुराम अपनी निद्रा से जागे  तब उन्होंने देखा कि कर्ण का पैर खून से लथपथ था, तब उन्होंने कर्ण से बोला कि इतना दर्द एक ब्राह्मण कभी नहीं सह सकता।



तुम जरूर कोई क्षत्रिय हो। सच-सच बताओ तुम कौन हो? तब कर्ण ने अपने बारे में सच बता दिया की मैं एक सूत्र पुत्र हूँ और मैं एक अच्छा धनुर्धर बनाना चाहता था और एक सूत्र पुत्र को कोई शिक्षा देने के लिए तैयार नहीं था इसी लिए मैं झूठ का सहारा लेकर आपकी शरण में आया था मुझे माफ़ कर दीजिये। लेकिन परशुराम कर्ण से बहुत नाराज हुए और क्रोधित परशुराम ने कर्ण को उसी समय श्राप दे दिया कि तुमने मुझसे जो भी छल से विद्या सीखी है जब भी तुम्हें इस विद्या की सबसे ज्यादा आवश्यकता होगी, तभी तुम इस विध्द्या को भूल जाओगे। कोई भी शस्त्र का प्रयोग नहीं कर पाओगे। महाभारत के युद्ध में हुआ भी यही। 


कर्ण की पत्नी का क्या नाम था?

   
कर्ण की कितनी रनिया थी ? महाभारत कथा के अनुसार कर्ण की दो पत्नियां थी और दोनों ही सूत कन्याएं थीं, उनका नाम रुषाली और सुप्रिया थी ।  


कर्ण के पुत्र का क्या नाम था?


कर्ण के दोनों पत्नियों से नौ पुत्र प्राप्त हुए, जिनका नाम वृशसेन, वृशकेतु, चित्रसेन, सत्यसेन, सुशेन, शत्रुंजय, द्विपात, प्रसेन और बनसेन था।  इन सभी ने महाभारत के युद्ध में कौरवों की तरफ से हिस्सा लिया था।  जिसमें 8 वीरगति को प्राप्त हुए थे। प्रसेन की मौत सात्यकि के हाथों हुई, शत्रुंजय, वृशसेन और द्विपात की अर्जुन, बनसेन की भीम, चित्रसेन, सत्यसेन और सुशेन की नकुल के द्वारा मृत्यु हुई थी। 


कर्ण के किस पुत्र को पांडव ने इंद्रप्रस्थ का  राजा बनाया था ?


वृशकेतु एकमात्र कर्ण का पुत्र था, जो जीवित बचा।  युद्ध के दौरान जब पांडवों को ज्ञात हुआ कि कर्ण उनका अपना भाई था , तो उन्हें बहुत दुख पहुंचा।  पांडवों ने अपने ही हाथों अपने भाई और उसके कुल का नाश कर दिया था।  केवल एक पुत्र वृशकेतु जीवित बचा था।  महाभारत के बाद पांडवों ने तय किया कि वे इंद्रप्रस्थ का सारा कार्यभार वृशकेतु को सौंप देंगे। 

उन्होंने वृशकेतु से अपने किए गए अपराध की क्षमा मांगी और सारी जिम्मेदारी उसे सौंप दी।  वहीं कर्ण की पत्नियों में से एक रुषाली ने कर्ण की चिता पर ही सती हो जाना स्वीकार किया। 



महारथी कर्ण-दुर्योधन की मुलाकात और मित्रता कैसे हुई? कर्ण अंगराज का राजा कैसे और किसने बनाया ? 



दुर्योधन कौरव में सबसे बड़ा था।  दुर्योधन अपने सौतेला भाई पाडवों से बहुत द्वेष रखता था। वह नहीं चाहता था कि हस्तिनापुर की राजगद्दी उससे भी बड़े पांडव पुत्र युधिस्थर को मिले। कर्ण दुर्योधन की मुलाकात द्रोणाचार्य द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में हुई थी। यहाँ सभी धनुर्वीर अपने धनुर्विद्या का कौशल दिखाते है, इन सब में अर्जुन श्रेष्ट रहता है, और दोर्णाचार्य अर्जुन को ही सबसे बड़ा धनुर्धारी खोषित करते हैं , लेकिन उसी समय कर्ण उस प्रतियोगित स्थल पर आ जाता हैं और गुरु द्रोण से कहता हैं की बिना परीक्षा लिए ही अर्जुन को सर्व श्रेष्ठ धनुर्धारी खोषित कर देना आपको और इस हस्तिनापुर को शोभा नहीं देता हैं। कर्ण गुरु द्रोण से कहता की मेरे पास अर्जुन के सभी गुणों में से केवल एक गुण मेरे पास नहीं हैं और वो गुण ये हैं की मैं आपका शिष्य नहीं और यदि मैं आपका शिष्य रहा होता तो शायद अब तक आप  मेरा एक अगूंठा भी कटवा चुके होते एकलव्य की तरह।



तब गुरु द्रोण कर्ण से कहते हैं की उस अगुठे में मुझे हस्तिनापुर की ओर चलने वाले बाणो के अंकुर दिखाई दे रहे थे धनर्धर। कर्ण तब तो मेरा अंगूठा बच गया। क्योंकि हस्तिनापुर मेरे लिए आदरणीय हैं और सदैव आदरणीय  ही रहेगा, मैं हस्तिनापुर , हस्तिनापुर नरेश, पितामह भीष्म, कुलगुरु कृपाचार्य और गुरु द्रोणाचार्य को प्रणाम करता हूँ। और अर्जुन को ललकारता हूँ धनुर्परतियोगिता के लिए, लेकिन कुल गुरु कृपाचार्य कर्ण से उसका परिचय पूछते हैं, और कहते हैं जब तक तुम अपना परिचय नहीं दे देते तब तक तुम अर्जुन को नहीं ललकार सकते।



क्यूंकि धर्म के अनुसार एक राजा को राजा, राजकुमार को राजकुमार और क्षत्रीय को क्षत्रीय ही ललकार सकता हैं। कर्ण अपना परिचय देता हैं की मैं एक सूद्र पुत्र हूँ , तभी गुरु कृपाचार्य कर्ण से कहते हैं की इस प्रतियोगिता में तुम भाग नहीं ले सकते क्योंकि एक क्षत्रीय और सूद्र पुत्र का कोई मुकाबला नहीं हो सकता। ये बात सुनकर कर्ण को अंदर तक आहात करती है और वह अपने आपको बहुत अपमानित महसूस करता हैं, और यही वजह बनती है कर्ण की अर्जुन के खिलाफ खड़े होने की।



दुर्योधन इस मौका का फायदा उठाता है, उसे पता है कि अर्जुन के सामने कोई भी धनुर्धारी सामना नहीं कर सकता था। दुर्योधन को कर्ण के भीतर धड़कती ज्वाला दिखाई देती हैं और दुर्योधन को यह एहसास हो जाता हैं की यदि इस पृथवी लोक पर अर्जुन का कोई सामना कर सकता हैं तो वह कर्ण ही हैं। दुर्योधन अपने अधिकारों का उपयोग कर कर्ण को अंग देश का राजा बना देता है। कर्ण इस बात के लिए दुर्योधन का धन्यवाद करता है, और कहता हैं मैं आपके इस अनुग्रह का ऋण पुरे जीवन नहीं चूका सकता। कर्ण के मुख से ये बात सुनकर  दुर्योधन उसे बोलता है कि वो जीवन भर उसकी दोस्ती चाहता है, इसके बाद से दोनों पक्के दोस्त हो बन जाते है।


क्यों कर्ण को क्यों दानवीर कहा जाता है ? क्या कहानी हैं दानवीर कर्ण की ?


हिन्दू धर्म ग्रंथों में अपने दानी स्वभाव के कारण कुछ लोगों को ही ख्याति प्राप्त उसमे से एक कर्ण हैं। कर्ण अपनी दानवीरता में, निस्वार्थ भाव के लिए और अपने पराक्रम के लिए लिया जाने जाते हैं।


महाबली सूर्य पुत्र कर्ण ने वैसे तो अपने जीवन में अनेको दान पुण्य का काम किया हैं  लेकिन उनके जीवन के दो महत्वपूर्ण दानों का उल्लेख निम्नानुसार हैं -:

कर्ण ने अपना कवच और कुण्डल भगवान इन्द्र को क्यों कर दिया दान ?


महाभारत कथा और पुराणों के अनुसार कर्ण प्रतिदिन अपने पास आए याचकों को मनचाहा दान देते थे।  ये उनकी दिनचर्या में शामिल था।  जब महाभारत के युद्ध का समय निर्धारित हो गया तब भगवान इन्द्र को अपने पुत्र के बारे में चिंता सताने लगी , क्योंकि कर्ण ही एक ऐसा योध्या हैं जो अर्जुन के विजय रथ में रुकावट हैं। और कर्ण को तब तक कोई योध्या पराजित नहीं कर सकता था जब तक उसके पिता सूर्य देव द्वारा कवच कुण्डल कर्ण के पास हैं।  तब भगवान इंद्र एक योजना बनाते हैं की कल सुबह एक ब्राम्हण और साधु का रूप धारण कर के कर्ण से कवच कुण्डल मांग लेता हूँ।


परन्तु उसी रात महावीर कर्ण को उनके पिता भगवान सूर्य से पता चल चुकी थी कि भगवान इंद्र अपने पुत्र अर्जुन के प्राणों की रक्षा के लिए उनसे इस प्रकार छल पूर्वक कवच और कुंडल का दान मांगने आएंगे और भगवान सूर्य ने अपने पुत्र कर्ण को अपने पुत्र मोह के कारण उन्हें ये दान देने से मना किया था। परन्तु कर्ण ने इस प्रकार याचक को खाली हाथ लौटाने से मना कर दिया, तब सूर्य देव ने कर्ण से कहा की जब तुम अपना कवच कुण्डल इन्द्र को दान में दोगे तो उसके बदले इंद्र से तुम्हे शक्ति नाम का अश्त्र मांगने के लिए कहा और वे वंहा से चले गए ,


दूसरे दिन भगवान इन्द्र अपना रूप बदलकर एक साधु के रूप में सम्मिलित हो गये और उन्होंने दान स्वरुप कर्ण से उनका कवच और कुंडल मांग लिए और कर्ण ने बिना अपने प्राणों की चिंता किये अपने कवच और कुंडल को अपने शरीर से अलग कर उन्हें दान स्वरुप दे दिया। और जाते समय कर्ण ने इंद्रा देव से शक्ति नाम का अश्त्र वरदान स्वरुप मांग लिया। इसी शक्ति नाम का अश्त्र से महाभरत के युद्ध में भीम पुत्र घटोचक का वध कर्ण के द्वारा किया गया था।


कर्ण ने अपनी माता कुंती को क्या दान दिया था ?


कर्ण ने महारानी कुंती को दान स्वरुप ये वचन दिया था कि  वे हमेशा पांच पुत्रों की माता रहेंगी, उनके सभी पुत्रों में से या तो अर्जुन की मृत्यु होगी या स्वयं कर्ण की और  वे महारानी कुंती के अन्य चार पुत्रों का वध नहीं करेंगे।  अपने इस वचन को निभाते हुए उन्होंने युद्ध में कई अवसर प्राप्त होने पर भी किसी पांडू पुत्र का वध नहीं किया और उन्हें जीवन दान दिया । 

इस प्रकार अपने परम दानी स्वाभाव के कारण उन्हें दानवीर कर्ण कहा जाता हैं । 


धर्मवीर ,कर्मवीर और सच्चे मित्र सूर्यपुत्र कर्ण  


महाभरत का युद्ध  शुरू होने से पहले ही कृष्ण कर्ण को बताते है कि वो कुंती पुत्र और पांडव का ज्येष्ठ हैं , और वही राज्य का सही उत्तराधिकारी है, युधिष्ठिर नहीं।  कर्ण को  कृष्ण बताते है कि वो कुंती और सूर्य का पुत्र है।  कृष्ण कर्ण को पांडव का साथ देने को बोलते है, लेकिन दुर्योधन से सच्ची दोस्ती व वफ़ादारी के कारण  कर्ण इस बात से इंकार कर देते है। कर्ण का पूरा जीवन त्याग, जलन में ही बीता, दुर्योधन गलत था और अधर्मी था।  कर्ण को शुरू से ही पता था कि दुर्योधन गलत राह पर चल रहा है, उसे ये भी पता था कि कौरव ये युद्ध हार जायेंगें, लेकिन दुर्योधन को दिए वचन के चलते कि “वो उसका कभी साथ नहीं छोड़ा।  कर्ण अंत तक दुर्योधन के साथ रहे और उसकी सेना के सेनापति रहे यह सब जानते हुए भी कर्ण ने दुर्योधन का साथ दिया और अंत में अर्जुन के हाथों मारा गया।



महाभारत में कर्ण को किसने मारा था ? - कर्ण की मृत्यु कैसे हुई ?


कर्ण-अर्जुन का युद्ध और कर्ण का वध - कर्ण अर्जुन भाई होते हुए भी बहुत बड़े दुश्मन थे। जब कर्ण और अर्जुन के बीच युद्ध प्रारम्भ हुआ  तब कृष्ण व इंद्र दोनों ने अर्जुन की मदद की थी। युद्ध के समय कर्ण परशुराम द्वारा दी गई महान विद्या को याद करते है लेकिन परशुराम के श्राप के चलते ही वो सब भूल जाते है।  युध्य के दौरान कर्ण का रथ मिटटी में धंस जाता है जिसे निकालने  वे अपना धनुष नीचे रख देते है. ये सब कृष्ण की चाल होती है।  उसी वक्त अर्जुन कर्ण  के ऊपर अपने गांडीव धनुष से बाणो की वर्षा कर देते हैं जिससे कर्ण वीरगति को प्राप्त कर लेता हैं।


जब पांडवो को पता चलता हैं की कर्ण उसका बड़ा भाई था 


जब कर्ण युद्ध में वीर गति को प्राप्त हो जाते हैं और यह बात कुंती को मालूम होती हैं तो वह बहुत रोती हैं।  पांडव ये देखकर हैरान हो जाते हैं कि उनकी माँ दुश्मन के मरने पर इतना क्यों विलाप कर रही है।  तब भगवान कृष्णा पांडवो को बताते हैं कि कर्ण उन सब का ज्येष्ठ भाई था। अर्जुन को अपने भाड़े भाई को मारने का बहुत दुःख होता है, वे इसका पश्चाताप भी करते है।


कर्ण कुंती का पुत्र कैसे हुआ?

सूर्य देव के कृपा से कर्ण का जन्म कुंती के विवाह से पहले ही हो गया था। कर्ण  सूर्य देव के समान ही बहुत प्रभावशाली था। 


अर्जुन और कर्ण में कौन श्रेष्ठ था?

महाभारत काल में दोनों योध्या ही बहुत श्रेष्ठ थे, लेकिन अपने दानवीरता के लिए प्रसिद्ध कर्ण को अपने प्रतिद्वंदी अर्जुन से श्रेष्ठ धनुर्धर थे। 


भरी सभा में कर्ण से जाति कौन पूछा था?

गुरु कृपाचार्य कर्ण से उसका परिचय पूछते थे। 

कर्ण को क्या श्राप मिला था?

परशुराम जी ने दानवीर कर्ण को श्राप दिया था , क्योंकि कर्ण ने झूठ का सहारा लिया और उसने परशुराम के आश्रम में शरण ली और उनसे झूठ बोला कि मैं एक ब्राह्मण हूं।

कर्ण का वध कैसे हुआ?

महाभारत का महायुद्ध पुरे 18 दिनों तक चला। सतरहवें दिन के युध्य में अर्जुन के द्वारा कर्ण को वीरगति प्राप्त हुई थी 

दानवीर कर्ण का अंतिम दान क्या था?

एक धर्मार्थ राजा होने के नाते, भगवान कृष्ण ने कर्ण के अंतिम क्षण में उनकी परीक्षा ली और कर्ण से दान मांगा, तब कर्ण ने दान में अपने सोने के दांत तोड़ दिए और भगवान कृष्ण को अर्पित कर दिया। इस उदारता से प्रसन्न होकर भगवान कृष्ण ने कर्ण से वरदान मांगने को कहा। कर्ण ने अपने साथ हुए अन्याय को देखते हुए अपने वर्ग के लोगों का कल्याण करने के लिए कहा। और दूसरे वरदान में जो जगह पाप से मुक्त हो, वही मेरा अंतिम संस्कार हो ।


कर्ण कहाँ का राजा था?

सूर्य पुत्र कर्ण अंगदेश का राजा था।



नोट :- पढ़े भारत में स्थित केवल एक कर्ण के मंदिर के बारे में  




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